दौसा। कहते है अच्छी शुरुआत खुद के घर से ही करनी पड़ती है। भले ही इसके लिए कुछ समय के लिए कुछ दकियानूसी लोगों की आलोचना का शिकार ही क्यों न होना पड़े। इसकी परवाह नहीं करनी पड़ती। जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में न्यूरो सर्जन के पद पर कार्यरत डॉ बीएल बैरवा की हाल ही में माता जी का निधन हो गया था। माताजी के निधन के बाद डॉक्टर बी एल बैरवा नहीं चाहते थे कि वर्षों पुरानी रूढ़िवादी परंपराओं का निर्वहन किया जाए। इसके लिए सबसे पहले उन्होंने अपने परिवार के बुजुर्गों, युवाओं ,महिलाओं से बातचीत की ।उनको इस बात के लिए राजी किया कि वे आगे की कोई भी संस्कार नहीं करना चाहते । जब परिवार में इस बात की सहमति बन गई तो उन्होंने इस बात के लिए अपने गांव में भाई बंधुओं को भी इस बात के लिए तैयार किया। बैरवा का समाज में अच्छा खासा सम्मान है, ऐसे में उनके द्वारा सुझाए गए रास्ते को सभी ने अंगिकार कर लिया। डॉक्टर बीएल बैरवा ने लोगों को बताया कि जैन,बौद्द, और सिख धर्म में मैं भी मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार तो किया जाता है लेकिन लेकिन अस्थियां विसर्जित नहीं की जाती है। तीये की बैठक के दिन ही सारे संस्कार पूरे कर दिए जाते हैं, 12 दिनों तक शोक मनाने की कोई परम्परा नहीं है। यहां तक कि 12 वें या 15 वें दिन भी किसी भी तरह का कोई आयोजन नहीं किया जाता है। जैन ,बौद्द और सिख धर्म में भी नुक्ता प्रथा बंद है। वहां भी किसी तरह का सामुहिक भोज देने की परम्परा नहीं है। अंतिम संस्कार के बाद अस्थियों को हरिद्वार या गंगा जी में ले जाने की परम्परा भी नहीं है। ऐसी स्थिति में हम क्यों इन रूढ़ियों का निर्वहन करें , जो हमारे लिए बनी ही नहीं। इन तमाम तर्क और विचार विमर्श के बाद डॉ बैरवा अपनी बात मनवाने में कामयाब रहे। बैरवा ने मां की अस्थियों को श्मशान में ही गड्डा खोदकर उस पर वट वृक्ष का पेड़ लगा दिया। तीये की बैठक के दिन पूरा कार्यक्रम समाप्त कर दिया गया। उसके बाद में न तो उन्होंने किसी तरह का नुक्ते का कार्यक्रम रखा, और न ही किसी तरह की पूजा पाठ रखा।

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published.