प्रतीकात्मक फोटो

 वर्मा जी सुबह से ही परेशान और हताश नजर आ रहे हैं लेकिन बोल कुछ नहीं रहे, पतिदेव को परेशान देखकर पत्नी से कैसे चुप रहा जाता । मौका देखकर श्रीमती पूछती हैं क्या बात है आज सुबह- सुबह ही कैसे परेशान हो रहे हो, बॉस ने कुछ बोल दिया क्या सुबह -सुबह ही । वर्मा जी झल्लाकर बोलते हैं ,तू तो सब कुछ समझती है कोरोना के बाद से कैसे हालात है अपने , बच्चों की फीस, मकान किराया, खाना खर्चा  कैसे तंगहाली में काम चला रहे हैं। बड़ी मुश्किल से टाइम पास हो रहा है ऐसे में बहन जी का फोन आया था बेटे का विवाह तय कर दिया है। अगले महीने ही 16 तारीख का लगन टीका है और 20 तारीख का भात है । जैसे ही भात का नाम आया वर्मा जी और वर्मा जी की पत्नी दोनों के माथे पर चिंता की लकीरें उभरने  लगी ।

अब श्रीमती जी कहती हैं देखो जी कुछ भी हो भांजे का विवाह है और बहन जी के पहली शादी है अब भात तो देना ही पड़ेगा । अरे में कौनसा मना कर रहा हूं। बहन के मायरा भरना किसे अच्छा नहीं लगता है। लेकिन अभी थोड़े हालात ही ऐसे हैं। इसलिए डर लग रहा है कि क्या होगा कैसे होगा। वर्मा की पत्नी बोल पड़ी मैं भी भांजे की शादी में नए कपड़े खरीदूंगी,  बच्चों के नए कपड़े लेने ही पड़ेंगे। इतना सुनते ही वर्मा जी का पारा सातवें आसमान पर तेरे को पहले तेरी पड़ी है। अरे सबसे पहले तो बहन जी के भात का इंतजाम करना पड़ेगा वह सबसे बड़ा खर्चा है। उसके बाद सोचेंगे तेरे और बच्चों के कपड़ों के बारे में तो खैर देखते हैं पैसों का इंतजाम कैसे होता है।  पैसे किससे उधार ले, कौन देगा ,अभी पहले लिए जो भी बकाया हैं. बैंक की भी किस्त चल रही है। बैंक से भी नहीं मिल सकता।  पर्सनल लोन भी नहीं मिलेगा। अब तो किसी साहूकार से लेना पड़ेगा।  हां तो ले लेना शर्मा जी से थोड़ा ब्याज ही तो देना पड़ेगा।  थोड़ा नहीं पूरे 2-3 रुपये सैकड़ा वसूल करते हैं ,वेतन  आते ही सबसे पहले ब्याज देना पड़ता है।  मूलधन वैसा का वैसा रहता है।  लेकिन फिर भी भला  हो उनका कम से कम ब्याज ले कर समय पर इज्जत तो रख लेते हैं,  बात तो खराब नहीं होने देते। इतना कहते हुए श्रीमती जी अपने काम में व्यस्त हो जाती है और वर्मा जी अपने काम में जुट जाते हैं।

आखिर वह समय आ गया जब बहन जी वर्मा जी के मायरे का न्योता लेकर आ गई. वर्मा जी और उनकी श्रीमती जी ने बहन जी और जीजा जी का स्वागत किया। निमंत्रण देखा और चाय पानी के बीच फिर चर्चा चली भात में  कपडे लेने देने की। वर्मा जी बोलते हैं बहन जी बहुत अच्छी बात है मुबारक हो शादी की। अब बताओ भात में क्या करना है कैसे करना है, इतने में ही जीजा जी बोल पड़ते हैं कम से कम 160 बेस कपड़े महिलाओं और आदमियों के तो देंने ही होंगे। हम भी पूरा परिवार पिछले 3 दिनों में हिसाब किताब जोड़ने में लगे हैं । कम से कम काटते- काटते  भी 160 लोगों के पैंट शर्ट और साड़ी ब्लाउज तो चाहिए ही।  इसमें हमारे परिवार के सदस्य तो अलग हैं।  अब भाई जब हमारे परिवार में दूसरे भाइयों के बच्चों की शादियों में इतने कपड़े आए हैं, तो हम कौन सी अपनी नाक पर मक्खी बैठने देंगे ? हमें भी मंगवाने पड़ेंगे जिनसे कपड़े ओढ़े हैं उन्हें उढ़ाने तो पड़ेंगे ही। वर्मा जी के बहनोई लगातार बोले जा रहे हैं फिर बोलते हैं यह तो हो गए भाई बंधुओं की।

अब बात आ गई परिवार की हम चार भाई हैं। उनके स्पेशल कपड़े आएंगे ।उनकी पत्नियों के और उनके बच्चों के आएंगे । इसके अलावा हमारी चार बहने भी हैं उनके उनके पति के और उनके बच्चों के भी, हमारे पांच मामा भी हैं। उनके भी पूरे परिवार के कपड़े लगेंगे ।आजकल तो उनके बच्चों के भी कपड़े देने का चलन आ गया है।  ऐसे करते करते हैं उन्हें कुल मिलाकर 201 अभी साड़ी साड़ी ब्लाउज और पैंट शर्ट इत्यादि कपड़े बता दिए। फिर अचानक बोलते हैं पांच पटेलों के, दाई का, जमादारनी का तो लगेगा ही वो तो आप जानते ही हो । बहनोई लगातार बोलते जा रहे थे वर्मा जी के चेहरे पर हवाइयां छूट रही थी । वर्मा जी की श्रीमती जी भी रसोई के गेट से खड़ी होकर सब बातें सुन रही थी और उनके भी चेहरे के हाव भाव खराब हो रहे थे।  लेकिन वर्मा जी और श्रीमती जी करते भी क्या ? क्योंकि समाज में चलन ही ऐसा हो गया। कुप्रथा खत्म होने की बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही है लोगों ने ज्यादा से ज्यादा कपड़े देने को भी अपना सामाजिक स्टेटस बना लिया है उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है आम और मध्यमवर्गीय गरीब लोगों को, क्योंकि उन्हें भी देखा देखी में खर्च करके अपनी बात तो 5 लोगों के बीच रखनी पड़ती है। जब बहनोइ जी बोलकर चुप हो गए तो वर्मा जी बोलते हैं पहले तो इतने कपड़े नहीं लगते थे। हां हां आप सही कह रहे हो पहले इतना लेन-देन का सिस्टम नहीं था। गांव के 50-60 कपड़े लगते थे, एक जमाई का ,एक मामा का बेस देने से ही काम चल जाता था।  लेकिन आजकल होड़ में घोड़े में  टूट रहे हैं।  लोगों ने ज्यादा से ज्यादा रिश्तेदारों को कपड़े देना गांव में ज्यादा ज्यादा कपड़े देना और रिश्तेदारी में भी जो पूर्व में सिंबॉलिक दिए जाते थे उसकी जगह पूरे के पूरे परिवार के कपड़े देना अपना सामाजिक स्टेटस बना लिया है । जो पैसे वाले लोग हैं वह तो यह सब कुछ दिखावे के लिए करके चले जाते हैं। लेकिन उसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है । आप और मेरे जैसे एक आम और गरीब आदमी को, जिसे  अपना सामाजिक स्तर बचाए रखने के लिए दूसरे की बराबरी करनी पड़ रही है । हालात यह है कि सामने वाले को इस तरह के आयोजन ख़ुशी देने की बजाय कर्जा देकर जाते हैं। जिसे वह 2-4 साल में चुका पाता है. तब तक दूसरा खर्चा आ जाता है। इतने में बहन  जी बोल पड़ती है, भाई मैं भी आपकी मजबूरी समझती हूं लेकिन क्या करें अभी हमारे जेठ जी के बेटे की शादी में ही उनके ससुराल वाले पूरे गांव के भाई बन्धों,  सारे रिश्तेदारों के कपड़े लेकर आए हैं ।

अब यदि हम उन उनके अनुसार नहीं करेंगे तो हमें नीचा देखना पड़ेगा। ज्यादा परेशानी हो तो कोई बात नहीं भाई मैं आपको कपड़े लाकर दे दूं ,आप दे देना ,पैसे टके नहीं हो तो बोल दो मैं दे देती हूं पर एक बार तेरी और मेरी इज्जत का तो सवाल है। पांच लोगों के बीच तेरी बहन की इज्जत खराब मत कराना। बहन जी की इतनी बात सुनते ही भाई और भाभी दोनों तमक पड़ते हैं।  बहन अभी तेरा भाई मरा नहीं है और इतना कंगाल भी नहीं हुआ है जो तेरा भात नहीं कर सके । जो तूने कहा है सब होगा ऐसा ही होगा। उतना ही टीके में पैसा डाल कर आऊंगा, जितना तेरी जेठानी के आया था, भले ही मुझे अपना मकान ही गिरवी क्यों नहीं रखना पड़े।अरे नहीं नहीं भाई मकान गिरवी रखने की जरूरत नहीं है आप तो बस अपनी श्रृद्धा अनुसार कर देना। मेरी इज्जत रख लेना बस। बहन जी और बहनोई साहब को विदा होकर चले गए लेकिन अब मायरा भरने की टेंशन सारी वर्मा जी और श्रीमती जी की थी।

बहन जी के कपड़े और टीके में देने वाले पैसों की बात सुनकर उनका बीपी और शुगर दोनों बढ़ चुका था वर्मा जी एक गोली बीपी की और एक गोली शुगर गटकते हैं और राहत मिलने पर बहन के मायरा भरने के लिए जोड़-तोड़ में लग जाते हैं आखिरकार वो दिन भी आता है जब बहन घर के भाई पड़ोसियों से कर्ज लेकर मायरा भरने जाता है लेकिन आखिरकार समाज में इस तरह का दिखावा कब तक चलेगा क्यों नहीं इन सब बातों पर कुछ अंकुश लगे, जिससे किसी भाई को अपनी बहन के मायरा भरते समय किसी भाई या पिता को अपने घर को गिरवी नहीं रखना पड़े या फिर कर्जा नहीं लेना पड़े। क्यों नहीं समाज के जागरूक लोग 100,150 और 200 लोगों कपडे और पैसे लेने की जगह सिंबॉलिक कपड़े लेने – देने की शुरुआत करते। केवल पारिवारिक कपड़े लिये जाए तो ठीक है। जिस तरह का अनाप-शनाप पैसा खर्च किया जाता है उस पर बैन लगे जिससे उस ब्याह में एक भाई भी खुश होकर शरीक हो सके और रस्मो रिवाज को निभा सके ना की किसी कर्ज में दबकर 2-4 साल और गरीबी का दंश झेलता रहे। क्यों नहीं हम सब मिलकर भाइयों के लिए भी मायरे को खुशनुमा बनाए उन्हें शादी ब्याह में खुश होने का अवसर दें ना कि अपनी शान और शौकत के लिए उन पर चाहा अनचाहा कर्जा लादकर कर्ज में डूबाएं ।

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