नई दिल्ली। भारत सरकार ने बड़ा फैसला किया है अब देश भर के निजी मेडिकल कॉलेजों में भले वह किसी भी प्रदेश में संचालित हो रहा हो, अब नए शैक्षणिक सत्र से एमबीबीएस स्टूडेंट्स की 50 फ़ीसदी सीटों पर सरकारी मेडिकल कॉलेजो के समान फीस लगेगी। अब तक मेडिकल कॉलेजों में बच्चों को एमबीबीएस प्रथम वर्ष के लिए 20 से 25 लाख रुपए सालाना देना पड़ता है । एक स्टूडेंट जिसने नीट पास की हो मैरिट में कॉलेज अलॉट हुआ हो तब उसे साढ़े पांच साल से एक से सवा करोड़ रुपए देने पड़ते थे। यदि ये एडमिशन मैनेजमेंट कोटे में ले तो स्टुडेंट को एक से पांच करोड़ रुपए डोनेशन के नाम पे अलग से देना होता है।

जिनका मैरिट में नंबर नहीं आता वे जाते है विदेश

जिन छात्र- छात्राओं का नीट की मैरिट के आधार पर भारत के सरकारी और गैर सरकारी मेडिकल कॅालेजों में नंबर नहीं आता वे मजबूरी में दूसरे देशों में एमबीबीएस करने जाते है। इसके पीछे वहां की फीस कम होना और दूसरा नीट की मैरिट की बाध्यता नहीं होना भी है। कई लोग लगातार इस बात को सोशल मीडिया पर प्रचारित कर रहे है कि जातीय आरक्षण की वजह से देश की प्रतिभाओं को विदेश में पढ़ाई के लिए पलायन करना पड़ता है। डॅा. शशी रजंन झा का कहना है कि उदाहरण के लिए मान लो यदि देश में कुल 100 सीटें है तो उसमें एससी 16 प्रतिशत, एसटी 12 प्रतिशत और ओबीसी 27, ईडब्लूयएस 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित हो गई। शेष बची हुई सीट पर सामान्य वर्ग के स्टूडेंटस का ही एडमिशन होना है। लेकिन एमबीबीएस की पढ़ाई करने के लिए लाखों बच्चे कोचिंग करते है दो – तीन साल तक नंबर नहीं आता है। मैरिट लिस्ट में पिछड़ जाते है। तब जाकर वे मजबूरी में ही विदेश में जाने का निर्णय लेते है। क्योंकि हमारे देश में जितने भी निजी मेडिकल कॅालेज है वे 50 फीसदी सीटें मैनजमेंट कोटे के नाम पर रखते है इन सीटों पर वे किसी को भी डोनेशन लेकर एडमिशन दे सकते है। इसके लिए मैरिट कोई मायने नहीं रखती है। इसलिए जो बच्चे इन प्राइवेट मेडिकल कॅालेजों को अफोर्ड नहीं कर पाते वे विदेश में एमबीबीएस करने जाते है। इसलिए जब वे एमबीबीएस करने के बाद भारत लौटते है तो उन्हें एनएमसी का टेस्ट पास करना होता है जिसमें 80 फीसदी स्टूडेंट फेल हो जाते है। इन्हें ये टेस्ट पास करने में कई बार कई साल लग जाते है। जबकि भारत में एमबीबीएस करने वाले स्टूडेंस को ये टेस्ट पास करने की जरुरत नहीं होती है। क्योंकि वे पहले नीट पास करते है उसके बाद नीट में मैरिट के आधार पर उन्हें कॅालेज अलॅाट होती है। इसलिए कुछ लोगों का ये आरोप कि प्रतिभाओँ का पलायन जातिगत आरक्षण से हो रहा है। सरासर गलत है। इन पिछले पांच सालों की मैरिट लिस्ट को देखा जाए तो एससी, एसटी , ओबीसी और सामान्य वर्ग की मैरिट लिस्ट में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। कई बार तो ओबीसी की मैरिट लिस्ट तो सामान्य से ज्यादा रही है। ऐसे में इस तरह से सोशल मीडिया पर इस तरह की बातें लिखकर माहौल खराब करने का प्रयास करने से पूर्व थोड़ा सा अध्ययन भी जरुरी है।

मोेटी फीस से बचने के लिए जाते है विदेश

इससे बचने के लिए स्टूडेंट्स रसिया, यूक्रेन, नेपाल सहित अन्य देशों में पढ़ने जाते है तो उनका सिर्फ नीट में पास होना ही जरूरी है। मैरिट कोई मायने नहीं रखती है। कई विदेशी कॉलेज तो ऐसे भी है जो सिर्फ 12 वीं बॉयोलॉजी पास स्टूडेंट्स को MBBS में एडमिशन देती है। वो भी पूरा कोर्स खाने ,रहने सहित 20 से 25 लाख रुपए में। इसमें भी भारतीय एजेंटस का कमीशन भी शामिल है। कुछ तो 20 से 25 लाख में पढ़ाई और साल में एक तरफ का एयर टिकिट भी देते है। इन तमाम बातों से साफ है कि बच्चों से रसिया, कजाकिस्तान, खरगिस्तान, यूक्रेन ,नेपाल चीन, सहित अन्य देशों में mbbs कराने के लिए जो कुल फीस वसूली जाती है, वो भारत के निजी कॉलेजों की एक साल की जितनी ही होती है। इसलिए बच्चों को माता पिता विदेश mbbs करने भेज रहे है। जबकि सरकारी कॉलेजों की फीस बहुत कम है। यदि सरकार ने देश के सभी निजी कोलेजो में फीस को सरकारी कॉलेजों के समान कर दिया तो इससे बच्चों को बहुत लाभ मिलेगा। बच्चे और अभिभावक खर्चे और अन्य परेशानी से बचेंगे। फैसले का फायदा स्टूडेंट्स को मिलेगा जिनका नंबर मेरिट में आएगा। 50 फीसदी से ऊपर वाली सीटों पर मैनेजमेंट का ही अधिकार रहेगा। 50 फीसदी तक सरकार कोटा निर्धारित करेगी। जिस पर सरकारी कॉलेजों में समान फीस लगेगी। ऐसा करने से बहुत से बच्चे विदेशों में पढ़ाई करने नहीं जाएंगें लेकिन इसके लिए सीटों में भी बढ़ोतरी करनी होगी। जब तक सीटें नहीं बढ़ाई जाएगी तब तक बच्चे मजबूरी में पढ़ाई करने जात रहेगे। क्योंकि हर साल 16 लाख या इससे अधिक नीट परीक्षा में बैठते है। जबकि इन स्टूडेंटस की तुलना में एमबीेबीएस की सीटें हजारों में ही है। इसलिए सरकार को मेडिकल की सीटें भी बढ़ानी होगी।

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published.