-निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक

सचिन पायलट परेशान है। चार साल से सो नहीं पा रहे। पार्टी के लिए परिवार से पराये हुए, घर छोड़ा, दिल्ली – जयपुर दोनों की दूरी नहीं देखी। जनता से जुड़ाव जारी रखा और आलाकमान का हर हुकुम बजाया। पर, मनचाहा मुकाम नहीं मिल रहा। दिन में, रैन में, सपन में व सुधियों में केवल मुख्यमंत्री की कुर्सी ही निशाना है। राजनीति में पद पाने की कामना अपराध नहीं होती। लेकिन कोई इच्छा जब आकांक्षा, अभिलाषा व पिपासा के सारे स्तर रौंदती हुई महत्वाकांक्षा के पार तक पहुंचे, तब भी कोई बात नहीं। लेकिन वही महत्वाकांक्षा जब वासना बन जाए, तो वही झेलना पड़ता है, जैसा पायलट झेल रहे हैं। उनके आचरण से लग रहा है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का पद से हटाना ही उन्होंने अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य पाल लिया लगता है।

पायलट की पद प्राप्ति की यही पतित पिपासा राजस्थान में कांग्रेस को कबाड़ बनाने का कारण बन रही है। वैसे, पद पर तो वे थे ही, एक नहीं बल्कि दो दो पदों पर। उपमुख्यमंत्री भी और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी। लेकिन मुख्यमंत्री बनने की तरस जब लगभग वासना की हद पार कर गई, तो जून 2020 में अपनी ही पार्टी की सरकार का तख्ता पलट करने पायलट मानेसर पहुंच गए। यह वैसा ही परिदृश्य था, जैसा मध्य प्रदेश में बीजेपी के सहयोग से सचिन के साथी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की सरकार को गिरा दिया था। फर्क केवल इतना सा रहा कि सिंधिया सफल हो गए, पर पायलट अटक गए। साथी छूट गए, नेता रूठ गए, सपने टूट गए और गद्धारी का गंदा तिलक ललाट पर सज गया। पायलट चाहे कितनी भी सफाई दे दें, पर कोई नहीं मानता कि ऑपरेशन लोटस बीजेपी का नहीं था, और वे बीजेपी की बिसात के मोहरे थे, यह सब जानते हैं।

इसीलिए, जानते तो सचिन भी है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में यश और कलंक का जो हिस्सा आता है, एक राजनेता के तौर पर उनकी झोली में भी दोनों भर भर कर आए हैं। लेकिन यह उनके पराक्रम की पराकाष्ठा है कि वे यश और कलंक दोनों का भार उठाते हुए रेतीले राजस्थान जैसे पराये प्रदेश में भी स्वयं को नए सिरे से साबित करने में लगे हैं। पत्रकार शरत कुमार अभी तो खैर मीडिया में सचिन के सबसे प्रखर पैरोकार की भूमिका में हैं, लेकिन पायलट के मानेसर मुकाम से लौटने और उपमुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दोनों पदों से जब उनकी बर्खास्तगी देखी, तो शरत ने भी ठीक ही कहा था कि आलाकमान के सामने सचिन को स्वयं की निष्ठा साबित करने में अब बहुत लंबा वक्त लगेगा।

वक्त लग भी रहा है और गुजरता भी जा रहा है, पायलट घर बैठे हैं। बर्खास्तगी के बाद से वे सिर्फ विधायक हैं और इधर – उधर दौरों में भीड़ जुटाकर राजनीतिक जीवन यापन की मजबूरी झेल रहे हैं। किसी भी राजनेता के पांच साला संसदीय जीवन में ढाई साल बहुत ज्यादा होते हैं, खास तौर पर तब, जब सरकार के फिर आने की संभावनाओं का इतिहास ही डरावना हो। लेकिन यहां तो आशाओं का पालना ही डरा रहा है। फिर, आशाएं जब मुख्यमंत्री जैसे शक्तिशाली पद प्राप्ति की हो, तो वे कुछ ज्यादा ही डरावनी हो जाती हैं। इन्हीं डरावनी आशाओं का आलम पायलट को सोने नहीं दे रहा। फिर सो तो वे इसलिए भी नहीं पा रहे हैं, क्योंकि चुनाव में वक्त चंद महीनों का ही बचा है, और सबसे बड़ी चुनौती जनाधार को बचाने की है क्योंकि नैया उसी के सहारे पार लगनी है। पायलट मानेसर से यह अच्छी तरह जान चुके हैं कि राजनीति में कोई स्थायी साथी नहीं होता। उन्हीं की तरह सभी पद की लालसा में लगे रहते हैं। सो, बदलते राजनीतिक समीकरणों के बीच डर यह भी है कि बचे खुचे साथियों में से कौन साथी पता नहीं किस मोड़ पर कौन सा रास्ता अख्तियार कर ले, कौन जाने। इसीलिए, पायलट कैसे भी करके कुर्सी पर आना चाहते हैं, पद पाना चाहते हैं। लेकिन हर हाल में पद पाने की पायलट की इस पिपासा में कांग्रेस का जो कबाड़ा हो रहा है, वही आलाकमान की सबसे बड़ी चिंता है। मगर, पायलट के वर्तमान राजनीतिक आचरण को देखें तो कांग्रेस की चिंताओं का उन पर कोई खास असर नहीं है। वे अर्जुन हैं और निशाना केवल मछली की आंख पर है।

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